Home उत्तर प्रदेश किसान आंदोलन बनाम अराजकता का नंगा नाच?

किसान आंदोलन बनाम अराजकता का नंगा नाच?

0

बरेली। चार साल पहले 26 नवंबर 2020 से 9 दिसंबर 2021 तक पूरे 378 दिन यानी लगातार 18 महीने तक चले कथित किसान आंदोलन के नाम पर पूरा देश अराजकता का बहुत वीभत्स और नंगा नाच देख ही चुका है। अब लोकसभा चुनाव से ठीक पहले फिर इसी आंदोलन के बहाने मुट्ठी भर अराजक तत्व एक बार फिर पिछले कई दिन से राष्ट्रीय राजधानी में घुसकर कानून-व्यवस्था को अपनी उंगलियों पर नचाने के खतरनाक इरादे से दिल्ली के तमाम बॉर्डरो पर खुलकर उत्पात मचाए हुए हैं।

देश एक बार फिर इस कथित किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली आने वाले सभी राष्ट्रीय राजमार्गों के बॉर्डर पर पुलिस-प्रशासन और अर्धसैनिक बलों से युद्ध करते और कानून व्यवस्था के साथ भद्दा मजाक करते इन कथित किसानों को भौंचक्का होकर देखने को विवश है। किसान संगठनों के साथ सरकार की दो दौर की वार्ता चंडीगढ़ में फेल हो चुकी है और 2500 तीसरे दौर की वार्ता का हश्र भी जब आप यह आलेख पढ़ रहे होंगे तो मीडिया के मार्फत आप सब तक पहुंच ही चुका होगा।

ये भी पढ़ें- पॉवर कॉरपोरेशन के कमाऊ बाबुओं पर मेहरबान अफ़सर

यहां यह साफ करते चलें कि हमारा इरादा केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार को इस पूरे मामले में क्लीन चिट देने और किसान संगठनों पर आरोपों की बौछार करने का बिल्कुल नहीं है। सरकार का भी यह संवैधानिक और नैतिक दायित्व जरूर बनता है कि वह किसान संगठनों की जायज मांगों पर समय रहते ठोस फैसला लेती और किसानों को दिल्ली कूच करने का मौका ही नहीं मिल पाता। जाहिर है कि सरकार से चूक तो हुई है। यह चूक है इस पूरे मामले में सरकार द्वारा इन मांगों के बाबत उठाए गए कदमों की जानकारी पूरी पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक करते हुए देश और देशवासियों के साथ साझा करना जो वह आज तक नहीं कर पाई है।
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने दो दिन पहले इस मामले की सुनवाई करते हुए किसान संगठनों और केंद्र, पंजाब-हरियाणा और दिल्ली की सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है और संयम रखते हुए सभी पक्षों से शांति व्यवस्था बनाए रखने का आदेश दिया है। बल प्रयोग को अंतिम विकल्प भी बताया है। सुनने में आया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ भी अब इस मामले में स्वतः संज्ञान ले सकते हैं।

सवाल वैसे किसान संगठनों से भी जरूर पूछा जाना चाहिए। क्या जायज-नाजायज मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन के नाम पर हाईवे घेर लेना और दुश्मन मुल्क की तरह दिल्ली पर चढ़ाई कर देने का हक भारतीय संविधान की किस धारा और कौन से कानून ने दे रखा है आपको?
आंदोलन के नाम पर किसान संगठनों ने दिल्ली आने के तमाम हाईवे तो जाम कर ही डाले हैं, अब ट्रेनों के चक्के थामने की भी तैयारी है। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें एक-एक करोड़ या उससे भी ऊपर की हजारों लग्जरी चार पहिया गाड़ियों और 2500 से भी ज्यादा बुलडोजरनुमा महंगे ट्रैक्टरों का फुल फौज फाटा लेकर छह माह की रसद के साथ हजारों-लाखों की तादाद में दिल्ली पर चढ़े ही चले आ रहे हैं? क्या आंदोलन के बहाने चार साल पहले की तरह इस बार भी आतंकवादियों की तर्ज पर फिर दिल्ली दहलाने की तैयारी है?

आखिर आंदोलन की भी कोई मर्यादा या सीमा-रेखा जरूर होनी चाहिए। आंदोलन के नाम पर कानून हाथ में लेने या तोड़फोड़ करने का हक किसी को भी क्यों दिया जाना चाहिए? सीजेआई को इस पूरे मामले में हस्तक्षेप करते हुए आंदोलनकारी संगठनों और सरकारों के लिए जरूरी दिशानिर्देश समय रहते जरूर देना चाहिए। आंदोलन की वजह से सड़कों पर रेंग-रेंग कर चलती हजारों गाड़ियां, वेंटिलेटर पर एक-एक सांस के लिए जूझते मरीजों की भारी जाम में फंसी एंबुलेंसें और दस-दस किमी तक पैदल चलने को मजबूर सैकड़ों बुजुर्ग-महिलाएं और बच्चों का आखिर क्या कसूर है?

क्या मोदी सरकार संसद की कार्यवाही के लाइव टेलीकास्ट की तरह किसान संगठनों और सरकारी प्रतिनिधिमंडल की मौजूदा वार्ताओं का सीधा प्रसारण कराने के बारे में फैसला नहीं ले सकती है? 
सवाल यह भी है कि क्या हम भारत की आजादी के 76साल बाद भी लोकतंत्र को अपनाने के लिए परिपक्व नहीं हो पाए हैं? सवाल किसान संगठनों, उनके नेताओं और सभी संबंधित राज्य सरकारों की मंशा और नीयत का भी है। क्या ये सब आंदोलन के शांतिपूर्ण, अहिंसक चरित्र को बचाए रखने के अपने दायित्व का पूरी ईमानदारी से निर्वहन कर पा रहे हैं? संगठन की ताकत की हनक में सरकार को नीचा दिखाने के इरादे से दिल्ली में हर हाल में घुसने और आंदोलन को लंबा खींचने, पटरियां उखाड़कर ट्रेनों के चक्के जाम करने का ऐलान लोकतंत्र के कौन से चेहरे से हम सबको रूबरू करा रहा है, यह सोचने और कुछ ठोस करने की फिलहाल सख्त जरूरत है।

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Exit mobile version