बरेली। रेल मंडल इज्जतनगर के इंजीनियरों कारगुजारी से रेलवे को हुए करोड़ो रूपये के नुकसान के मामले में विजिलेंस ने जांच शुरू कर दी है। टीम ने इज्जतनगर रेल मंडल में हाल के दिनों में शिफ्ट किए गये अंडरपास और अफसरों पर लगे आरोपों के आधार पर अपनी जांच आगे बढ़ा दी है। इसके साथ ही अन्य दस्तावेज विभागीय अफसरों से उपलब्ध कराने को कहा है। पिछले तीन चार दिनों से विजिलेंस इज्ज़तनगर मंडल में डेरा डाले हुए है। विजिलेंस की कार्रवाई से इंजीनियरिंग विभाग में हडकंप मचा हुआ है। कई अफसरों को अपनी गर्दन फंसती नगर आ रही है। बताया जा रहा है कि इंजीनियरिंग के अफसर और बाबू टीम के रडार पर हैं। लोकतंत्र टुडे ने जनवरी के अंक में अंडरपास में खेल शीर्षक से खबर प्रकाशित की थी। इस खबर का संज्ञान लेकर विजिलेंस की टीम ने जांच शुरू कर दी है।

आपको बतादें कि हाल के दिनों में रेलवे को 15 अंडरपास बनाने थे। इसमें 13 अंडरपास कट कवर और दो एयरपुश तरीके से बनाए जाने थे। लेकिन इंजीनियर अफसर और ठेकेदारों की तिगड़ी की वजह से कई अंडरपास शिफ्ट करने पड़े। बताया जाता है कि परियोजना शुरू होने से पहले प्रक्रिया पूरी नहीं करने की वजह से ऐसा हो रहा है।
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रेलवे के इंजीनियर अधिकांश परियोजना में साइट पर ही नहीं जाते और आफिस में बैठकर कागजी कोरम पूरा कर देते हैं। यही वजह है कि आननफानन टेंडर निकाले जा रहे हैं और अंडरपास बनाने का काम अटक रहा है। अंडरपास बनाते समय साइट फेल होने से रेलवे को करोड़ों का नुकसान हो चुका है। अंडरपास के लिए खोदाई की जाती है, दूसरे शहर में बने बाक्स साइट पर लाए जाते हैं। लेकिन साइट फेल होने पर उस बाक्स को दूसरी जगह शिफ्ट करना पड़ता है। इसमें क्रेन, हाइड्रा, जेसीबी, पोकलेन मशीन, ट्रैक्टर-ट्राली और मजदूरी पर भारी व्यय होता है। एक अंडरपास के निर्माण में करीब साढ़े तीन करोड़ से लेकर 11 करोड़ तक की लागत खर्च होती है। ऐसे में उसकी शिफ्टिंग होने रेलवे को भारी व्यय करना पड़ता है। सबसे अधिक साइट फेल सीनियर डीईएन-1 के सेक्शन में हुई है। अधिकांश ठेकेदारों ने अंडरपास शिफ्ट होने के बाद रेलवे से आरवीटेशन के माध्यम से पीवीसी के तहत करोड़ों रुपये वसूल लिया। ताक पर नियम रखकर निकाले जा रहे टेंडर नियमानुसार टेंडर निकालने से पहले सभी प्रक्रिया पूरी होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। रेलवे के अधिकारी टेंडर निकालने से पहले अधिकांश साइटों पर उप्र सरकार के विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं लेते हैं। इंजीनियर साइट पर जाकर फिजिबिलटी चेक नहीं करते हैं। टेंडर निकालने की जल्दबाजी होती है और फिर परियोजना फेल होने से रेलवे को करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ता है। सूत्रों की मानें तो टेंडर बनाने से ही कमीशन का खेल शुरू हो जाता है। टेंडर बनाने और निकालने से बाद ठेकेदार को स्वीकृति देने के साथ ही कमीशन का मोलभाव होने लगता है। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि परियोजना शुरू होने से पहले ही ठेकेदार को कई सीट पर मोटा कमीशन चढ़ाना पड़ता है। ऐसे में अगर टेंडर कैंसिल भी हो जाए तो विभागीय अधिकारियों-कर्मचारी को कमीशन की मलाई मिल जाती है।