-गणेश पथिक
यह किसान आंदोलन है या देश में चंद लोगों को बरगलाकर धींगामुश्ती और ताकत के जोर लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाते हुए आए दिन उसकी धज्जियां उड़ाते रहने का कोई भद्दा खेल चल रहा है? अपनी जायज मांगें मनवाने के लिए धरना-प्रदर्शन, हड़ताल, घेराव जैसे आंदोलन करते हुए धृतराष्ट्री निद्रा में सोए-खोए शासन-प्रशासन को झकझोरकर जगाने का संवैधानिक हक सिर्फ अन्नदाता किसानों को ही क्यों, देश के हर नागरिक को हासिल है और इसे किसी भी एंगिल से नाजायज भी हरगिज नहीं कहा जा सकता है। लेकिन, दिल्ली कूच की जिद में अन्नदाताओं के इस कथित आंदोलन की आड़ में पिछले 10 दिनों से हरियाणा-पंजाब से राष्ट्रीय राजधानी में इंट्री के सभी बार्डरों को बंद करके रखने को लोकतंत्र में हासिल अधिकारों का दुरुपयोग नहीं कहा जाए तो इसे आखिर कहना क्या चाहिए?
हजारों लग्जरी कारों, हैवी ट्रैक्टरों, पोकलेन मशीनों और आग जलाने-बुझाने, आंखों में मिर्ची पाउडर भी झोंकने के कई महीनों के पुख्ता इंतजामात के साथ शंभू और खनौरी दाता सिंह बाॅर्डर पर जोर-जबरदस्ती से दिल्ली में घुसने की जिद पर अड़े प्रदर्शनकारी किसानों पर बुधवार 21 फरवरी को पुलिस जवानों ने लाठीचार्ज किया और ड्रोन से आंसू गैस के गोले दागे तो उग्र प्रदर्शनकारियों ने भी पुलिस के अफसरों-जवानों पर खूब हमले किए। नतीजा यह कि इन हिंसक झड़पों में एक प्रदर्शनकारी की दुखद मौत हो गई और 50 से ज्यादा किसान घायल हुए हैं।

उधर, प्रदर्शनकारियों को दिल्ली कूच से रोकने की कोशिश में शंभू बार्डर पर एक एसपी और एक थाना प्रभारी भी घायल हो गए। पिछले 10 दिनों के आंदोलन में अब तक दो किसानों और एक एसआई और होमगार्ड समेत तीन जवानों की मौत की दुखद खबर है। जबकि 12 जवान भी घायल हुए हैं।
इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहेंगे कि बॉर्डर पर आंदोलन को शांतिपूर्ण रखने के किसान नेताओं के तमाम दावों-वादों के बीच बहुत से अराजक तत्व भी प्रदर्शनकारियों के बीच घुसपैठ कर माहौल को विस्फोटक बनाने की सोची-समझी साजिश को अंजाम देने से बाज नहीं आ रहे हैं।
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के नेता सरवनसिंह पंधेर और दूसरे बड़े किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल भी अब खुद आंदोलन की कमान अपने हाथों में संभालते हुए प्रदर्शनकारी नौजवानों को पुलिस के हमलों के बावजूद शांति बनाए रखने, जोश में होश नहीं खोने और अपने बीच घुस आए कुछ अराजक तत्वों की हरकतों से खबरदार रहने की हिदायतें भी देते दिख रहे हैं।
प्रदर्शनकारियों के चाक-चौबंद इंतजामात की बात करें तो वे किसी दुश्मन देश की फौज के खिलाफ युद्ध की तैयारियों से बिल्कुल भी कम नहीं है।
बुधवार की तरह गुरुवार को भी पुलिस-अर्धसैन्य बलों ने प्रदर्शनकारियों को शंभू-खनौरी बार्डरों से दिल्ली की तरफ बढ़ने से रोकने के लिए ड्रोन से उन पर आंसू गैस के गोले और रबड़ बुलेट्स दागे तो प्रदर्शनकारी भी पतंगों से ड्रोन को नीचे गिराने, हमलावर जवानों की आंखों में मिर्ची पाउडर झोंककर उन्हें बेबस बनाने में जुटे देखे गए।
बताया जा रहा है कि बॉर्डर के पास खाने-पीने के महीनों के इंतजाम के बीच खेतों में प्रदर्शनकारियों ने रिहाइश के वास्ते न सिर्फ पक्के मकान बनवा डाले हैं, बल्कि हमलों से बचने के लिए बंकर तक बना लिए हैं। यही नहीं, हाईवे से होकर दिल्ली में घुसने नहीं देने पर नदी-नालों पर रेता-मिट्टी भरी बोरियां डालकर अस्थायी पुल बना डालने का भी इन प्रदर्शनकारियों ने पुख्ता इंतजाम कर रखा है। सैकड़ों ट्रैक्टर ट्रालियों में मिट्टी-रेता भरी प्लास्टिक की हजारों बोरियां इसी मकसद के वास्ते लादकर बॉर्डर पर लाई गई हैं।
आंसू गैस के असर से बचने के लिए प्रदर्शनकारी पानी में भीगी बोरियों की आड़ ले रहे हैं। साथ ही पंजाब से आए सैकड़ों नौजवानों ने बाॅर्डर पर डटे प्रदर्शनकारियों को पीपीई किट, खास चश्मे और ग्लव्स आदि भी बांटे हैं।
किसान आंदोलन के दौरान किसान नेताओं और केंद्र सरकार के बीच तीन दौर की वार्ता फेल होने के बाद 18 फरवरी को चंडीगढ़ में हुई चौथे दौर की वार्ता से आंदोलन का सर्वमान्य समाधान निकाल लिए जाने की काफी उम्मीदें लगाई जा रही थीं। दोनों ही पक्ष वार्ता सकारात्मक वातावरण में और सार्थक होने के दावे भी कर ही रहे थे। उम्मीद थी कि दोनों तरफ जमी अविश्वास के बर्फ की घनी परतें जरूर पिघलेंगी लेकिन किसान नेताओं ने एक बार फिर बगैर कोई सार्थक सुझाव दिए मोदी सरकार का प्रस्ताव ठुकरा दिया और सभी मांगें मनवाने के लिए दिल्ली मार्च का ऐलान कर दिया है। हालांकि हालात की नजाकत को भांपते हुए किसान नेताओं ने दिल्ली मार्च के अपने प्रोग्राम को 23 फरवरी शुक्रवार तक टाल दिया है। शुक्रवार को एसकेएम की बैठक में आंदोलन के भावी स्वरूप की घोषणा हो सकती है।
तमाम ना-नुकर के बीच यह तो आईने की तरह बिल्कुल साफ ही हो चुका है कि अन्नदाताओं के इस प्रदर्शन की आड़ में अपने-अपने हितों को साधने की मौकापरस्त सियासत भी खूब हो रही है। एक बड़े किसान नेता ने तो पिछले दिनों साफ कह डाला कि अयोध्या में राम मंदिर और प्राण प्रतिष्ठा से बहुत बढ़ चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊंचे ग्राफ को नीचे लाने के लिए बहुत कम वक्त में हम सबको कुछ बड़ा जरूर करना होगा। किसान नेता सरवन सिंह पंधेर हों या जगजीत सिंह डल्लेवाल, राकेश टिकैत हों या कोई और या फिर आप की भगवंत मान के नतृत्व वाली पंजाब सरकार, सभी प्रदर्शन की बेतरह भड़की आग की लपटों में अपनी-अपनी सियासत की रोटियां तो खूब सेंक रहे हैं लेकिन इसे असल में बुझाना तो कोई भी नहीं चाह रहा है। हां, इस आग को और भड़काने के लिए लपटों में अपने भड़काऊ बयानों का घी जरूर डाल रहे हैं।
दौर की वार्ता में सरकार के चार अन्य फसलों पर एमएसपी के प्रस्ताव को बगैर कोई ठोस सुझाव दिए ठुकरा देने के फैसले को लेकर सवाल यह भी जरूर पूछा जाना चाहिए कि इस आंदोलन का रिमोट कंट्रोल आखिर है किन हाथों में? भाकियू चढ़ूनी गुट के राष्ट्रीय अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी के आह्वान पर अब बरेली समेत उत्तर प्रदेश भर के जिला मुख्यालयों पर भी आंदोलनकारी किसानों के जत्थे ट्रैक्टर ट्रालियों को लेकर पहुंचने लगे हैं।
यहां थोड़ा रुककर ठंडे दिमाग से सोचने और उसे अच्छी तरह समझकर अमल में लाने की लाख टके की बात तो यह है कि किसी भी आंदोलन और संगठन शक्ति के बल पर अपनी जायज मांगें मनवाने की जिद तो ठीक है लेकिन देखना यह भी चाहिए कि हम दिल्ली के बार्डरों और हाईवे को आखिर कब तक और कितने दिन तक बंद रखेंगे? इससे तमाम राज्यों के उद्योग और व्यवसाय पर कितना व्यापक और घातक असर पड़ेगा, कभी यह भी सोचा है? मांगें मानने की हर सरकार की भी आखिर एक एक सीमा होती है? आखिरकार सरकारी खजाना अनंत-असीम तो है नहीं? कोई आंदोलन चाहे कितने भी दिन चले लेकिन मांगें मनवाने के लिए दोनों पक्षों को देर सवेर वार्ता की मेज पर तो आना ही पड़ेगा और दोनों ही पक्षों को अपना अड़ियल-जिद्दी रवैया छोड़कर थोड़ा लचीला भी बनना ही पड़ेगा। शायद इसी उदारवादी-प्रगतिशील सोच में ही सबका हित छिपा है।…उम्मीद की जानी चाहिए कि अब बहुत हो चुका। पांचवें दौर की वार्ता के लिए दोनों पक्ष जरूर दो-दो कदम आगे बढ़ेंगे और आपसी विश्वास से भरे सकारात्मक-सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में आम सहमति का रास्ता चुन लेने और आंदोलन के सम्मानजनक समापन की घोषणा की समझदारी जरूर दिखाएंगे।
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